Friday, May 24, 2019

मोदी की जीत हिंदू समाज पर उनके प्रचंड रौब की है: नजरिया

इस जनादेश की एक ही व्याख्या है और वो दो शब्द हैं. नरेंद्र मोदी. ये जीत नरेंद्र मोदी की है.
लोगों की जिस तरह की आस्था उभरी है उनमें वो अप्रत्याशित है. भारत की आज़ादी के बाद ये पहली बार हुआ है कि किसी एक व्यक्ति का हिंदू समाज पर इतना प्रचंड रौब और पकड़ राजनीतिक दृष्टि से बन गई है.
ऐसा न जवाहर लाल नेहरू के जमाने में था और न ही इंदिरा गांधी के जमाने में. अगर इसको बड़े समीकरण में देखें तो लगभग 50 प्रतिशत वोट शेयर, सारी संस्थाएं बीजेपी के हाथ में हो जाएंगी. अगर कर्नाटक और मध्य प्रदेश की सरकार गिर गई तो राज्यसभा की संख्या में भी तब्दीली होगी.
इनके पास सिविल सोसाइटी का जो संगठन है आरएसएस और जो तमाम दूसरी संस्थाएं हैं, वो अपनी तरह की सांस्कृतिक चेतना पैदा करने की कोशिश कर रही हैं.
भारत की राजनीति में ये मौक़ा बिल्कुल अप्रत्याशित है. अब अगर ये पूछें कि ऐसा क्यों हुआ है तो इसके कई कारण बताए जा सकते हैं. जब हार होती है तो कई तरह की अटकलें लगाई जा सकती हैं.
ये ज़रूर है कि विपक्ष बहुत कमज़ोर था. हर तरह से कमज़ोर था. रणनीति में कमज़ोर था. विपक्ष राष्ट्रीय स्तर पर गंठबंधन नहीं कर पाया, उसने जनता को एक तरह से ये ही संदेश दिया कि इनमें कोई राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जो अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर सोच सकता है.
कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम नहीं बना पाए. अगर आप देखें तो पिछले पांच दस साल में नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार का थीम ये रहा है कि भारत में एक पुरानी व्यवस्था थी.
वो पुरानी व्यवस्था नेहरू-गांधी परिवार से जुड़ी हुई थी. वो व्यवस्था भ्रष्ट हो चुकी है. उस व्यवस्था ने भारत को ग़रीब रखा. 2014 में ये व्याख्या नरेंद्र मोदी के बड़े काम आई. उस समय सत्ता विरोधी (एंटी इन्कंबैंसी) वोट था.
लेकिन पिछले पाँच साल में अगर आप कांग्रेस का विश्लेषण करें तो प्रियंका गांधी को राजनीति में लाने के सिवाए किसी भी राज्य में किसी भी स्तर पर कांग्रेस के संगठन में कोई परिवर्तन आया क्या?
यहां मोदी बात कर रहे हैं सांमतवादी राजनीति की और वशंवादी राजनीति की. कांग्रेस राजस्थान में चुनाव जीतती है. (राजस्थान के मुख्यमंत्री) अशोक गहलोत पहला काम क्या करते हैं जोधपुर में टिकट देते हैं (अपने बेटे) वैभव गहलोत को. (मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री) कमलनाथ पहला काम क्या करते हैं अपने पुत्र को छिंदवाड़ा से टिकट देते हैं.
मोदी ने जो व्याख्या बना रखी है कि पुरानी व्यवस्था है वो इतनी कमज़ोर और परिवार पर निर्भर हो चुकी है कि उसमें तो कोई दम बचा नहीं.
अगर ये सवाल करें कि ये जीत किस विचारधारा की जीत है तो ये बहुसंख्यकवाद की जीत है. स्वतंत्रता के बाद आज पहली बार ऐसा हो रहा है.
लोग मानते थे कि भारतीय राजनीति का केंद्र हमेशा सेंट्रिस्ट (मध्यमार्गी) रहेगा. लोग मज़ाक करते थे कि बीजेपी को अगर जीतना होगा तो उन्हें भी कांग्रेस की तरह बनना पड़ेगा. लेकिन वो मध्यमार्ग आज ख़त्म हो चुका है.
इस चुनाव में नकारात्मक प्रचार हुआ. अली-बजरंग बली की जो फ्रेमिंग थी. प्रज्ञा ठाकुर जैसे उम्मीदवार को लाया गया. ये कह सकते हैं कि 2014 में नई बात थी. आर्थिक विकास की बात थी. लेकिन इस बार के चुनाव प्रचार में अगर आप नरेंद्र मोदी के भाषणों को देखें तो उनकी ज़्यादातर बातें इसी दिशा में ले जाती हैं. या तो परिवारवाद के ख़िलाफ या फिर गर्व से कहें हम हिंदू हैं. तो हमें इस निष्कर्ष से पीछे नहीं हटना चाहिए कि ये बहुसंख्यकवाद की जीत है.
मुद्दा सिर्फ भ्रष्टाचार का नहीं है. तीन चार विषय हैं. भारत की नई पीढ़ी ने राष्ट्र निर्माण में कांग्रेस का क्या बलिदान था, ये नहीं देखा है. उत्तर भारत में राजीव गांधी के बाद कांग्रेस का जबर्दस्त क्षरण शुरू हुआ. इनके पास उत्तर भारत में अच्छी हिन्दी बोलने वाला ढंग का एक प्रवक्ता तक नहीं है.
कांग्रेस सभी गुटों का विश्वास खो बैठी. उत्तर प्रदेश में दलितों और मुसलमानों का विश्वास खो बैठी थी. सवाल ये है कि कांग्रेस ने ऐसा क्या किया जो उन वर्गों को जाकर ये विश्वास दिला सके कि आप हमारे साथ जुड़िए. हम आपके प्रगति और विकास की बात करेंगे.
उनमें भी एक धारण बन गई कि कांग्रेस को मुसलमानों का वोट चाहिए लेकिन उसे मुसलमानों में दिलचस्पी नहीं है. बीस-तीस साल तक इसका अंदाज़ा नहीं हुआ. वजह ये है कि उत्तर भारत में मंडल कमिशन के बाद से मंडल और कमंडल की राजनीति थी. एक तरफ हिंदुत्व का ध्रुवीकरण और उसको तोड़ेंगी जातियों वाली पार्टियां.
लेकिन नरेंद्र मोदी ने आज ये सिद्ध कर दिया है कि अब ये जातीय और सामाजिक समीकरण को नए भारत में कामयाब बनाना बहुत मुश्किल है. दलित वोट भी आज बँट गया है. मायावती के पास जाटव के अलावा ज़्यादा दलित वोट नहीं है. कांग्रेस और बाक़ी दल अब भी पुराने समीकरण में फंसे हुए हैं. इस समीकरण को मोदी 2014 में ही पछाड़ चुके थे.

Thursday, May 9, 2019

محسنة توفيق الفنانة التي لم تتنازل عن مواقفها السياسية

رحلت الفنانة المصرية محسنة توفيق، عن العالم عن عمر ناهز 80 عاماً بعد صراع مع المرض، وشُيع جثمانها من مسجد السيدة نفيسة في السابع من مايو/أيار الحالي.
ونعاها جمهورها ومحبوها في صفحاتهم في وسائل التواصل الاجتماعي، كما نعتها وزارة الثقافة المصرية من خلال بيان قالت فيه: "إن الإبداع الدرامي فقد إحدى علاماته التي تميزت بالأداء الفني الصادق".
بدأت محسنة توفيق (مواليد 1939) مشوارها الفني بالمسرح المدرسي منذ أن كانت طالبة، وحصلت على البكالوريوس في الزراعة عام 1968. وتعد محسنة الأخت الكبرى من بين ثلاث أخوات، جميعهن فنانات. فشقيقتها الأولى فضيلة توفيق المعروفة بلقب "أبلة فضيلة" تقدم برامج إذاعية، والثانية يسرا توفيق، كانت مغنية أوبرا.
وشارك كثيرون بمن فيهم ممثلون ومخرجون مقاطع من أفلامها في صفحاتهم في وسائل التواصل الاجتماعي تعبيراً عن تقديرهم لأعمالها.
وكان دخولها عالم التمثيل بمحض الصدفة، إذ بدأت فيها عندما كانت في التاسعة من عمرها، وشجعها مدرّس اللغة العربية لكي تلعب دوراً في المسرح المدرسي، وأعجبها ذلك فكانت انطلاقتها الأولى.
وبقيت محفورة في ذاكرة عشاقها ممن تابعوا فيلم العصفور الذي تألقت فيه بشخصية "بهية" للمخرج الراحل "يوسف شاهين".
وعُرفت بمواقفها السياسية منذ أيام الرئيس المصري السابق جمال عبد الناصر ، وشاركت في ثورة 25 يناير 2011.
وقالت في إحدى الندوات التي أقامها مهرجان أسوان: "إنها استبعدت من المشاركات في الأعمال التلفزيونية بسبب مواقفها السياسية".
وأضافت: "طُلب مني تغيير مواقفي السياسية، لكنني لم أفعل، فقد كنت دائماً أسأل نفسي عن سبب تظاهر العمال والطلبة منذ أن كنت صغيرة، وعرفت أنهم عانوا من الضغط والكبت وسوء المعيشة، وظلت حكايات كتلك تلازمني في حياتي ودائما أنظر إلى الظروف والأوضاع وآخذ بالأسباب".
وفي إحدى مقابلاتها قالت: "قررت أن أعيش وسط الناس، وذهبت للمخيمات الفلسطينية، وتعلمت منهم الإصرار والتحدي".
ونالت جائزة الدولة التقديرية في الفنون عام 2012، قبل آخر تكريم لها في مهرجان أسوان الدولي لأفلام المرأة في فبراير/ شباط الماضي.
ساهمت في العديد من الأفلام والمسلسلات والمسرحيات أبرزها "ديل السمكة" في عام 2003، و"قلب الليل" عام 1989 و"وداعاً بونابارت" في 1985 و"إسكندرية... ليه" في عام 1978 و"العصفور" عام 1972 و"البؤساء" للمخرج عاطف سالم و"الزمار" للمخرج عاطف الطيب.
تنوعت اهتمامات الصحف البريطانية الصادرة صباح الخميس بملفات المنطقة العربية وذلك في نسخها الرقمية والورقية على حد سواء حيث أبرزت بعض الصحف الملف النووي الإيراني وحاولت تفصيل بعض المعلومات الدقيقة لقارئها كما تناولت الملف العراقي وعدة ملفات أخرى.
ونشرت الفاينانشيال تايمز تقريرا لفريق من مراسليها على صدر الصفحة الاولى بعنوان مثير يقول "الولايات المتحدة تزعم أن إيران تحتفظ بالعالم كرهينة بسبب خطرها النووي".
ويتناول التقرير ما يسميه بالتعاون الأمريكي الأوروبي على تحذير إيران من مغبة قرار تعليق الالتزام ببعض بنود الاتفاق النووي.
أما الغارديان فنشرت تقريرا لمحرر الشؤون الديبلوماسية باتريك وينتور عن الملف النووي لإيران وكيف تواجه الضغوط الغربية معلقا على قرار الرئيس حسن روحاني تعليق التزام بلاده ببعض شروط الاتفاق النووي مالم يحدث تقدم سريع في رفع العقوبات.
وعنونت الجريدة التقرير بعنوان مباشر يقول "بومبيو يطلب مساعدة بريطانيا في لجم إيران".
ويقول وينتور إنه بموجب الاتفاق النووي عام 2015 رُفعت العقوبات الاقتصادية التي كانت مفروضة على طهران مقابل الحد من أنشطة تخصيب اليورانيوم على أراضيها لكن تهديد روحاني بالعودة إلى تخصيب اليورانيوم على أراضي بلاده سيسمح لإيران بزيادة مخزونها منه ومن الماء الثقيل بعدما كانت تقوم باستيرادهما من الخارج.
ويوضح وينتور أن إيران تعاني اقتصاديا بشدة بسبب عودة العقوبات الاقتصادية بعدما قرر الرئيس الأمريكي دونالد ترامب الانسحاب من الاتفاق النووي حيث تراجعت قيمة الريال الإيراني من 32 ألفا مقابل الدولار إلى 153 الف ريال مقابل الدولار الواحد.
ويعتبر وينتور ان الأمريكان من جانبهم "سيشعرون بالسعادة لأن ضغوطهم الاقتصادية أسفرت اخيرا عن تصدعات في البنية الإيرانية وسوف تستخدم واشنطن ذلك لاجتذاب الاتحاد الأوروبي إلى معسكرها وإخراجه من الاتفاق النووي وفرض عقوبات إضافية على إيران من الجانب الأوروبي".
ويضيف وينتور أن "هناك بعض المسؤولين في الإدارة الأمريكية على رأسهم جون بولتون مستشار الأمن القومي يرغبون في إعداد سيناريو للحرب على إيران كما فعل مع العراق عام 2002".
ونشرت الإندبندنت مقالا لروبرت فيسك بعنوان على ضفاف دجلة: كيف عثرت على قبر جندي بريطاني قتل في الحرب العالمية الأولى في العراق؟
يقول فيسك إنه تلقى دعوة من سيدة انجليزية للذهاب إلى مقابر قتلى القوات الانجليزية في الحرب العالمية الاولى في مدينة العمارة العراقية.
ويشير فيسك إلى انه "تلقى رسالة من السيدة مويرا جينينجز التي تبلغ حاليا من العمر 87 عاما بالتزامن مع الغزو الأنغلو أمريكي الكارثي وغير القانوني للعراق عام 2003" حسب تعبيره، ثم تبادلا الرسائل عدة مرات بعد ذلك.
ويوضح فيسك أن السيدة أكدت له أن جدها الذي كان يعمل راعيا للأغنام في اسكتلندا قد قُتل في العمارة ودُفن هناك في الثاني والعشرين من أبريل/ نيسان عام 1916 خلال أحداث الحرب العالمية الأولى وانها لطالما كانت تلعب مع جدتها التي اخبرتها ان جدها قد قتله الأتراك في بلاد ما بين النهرين.
ويسعى فيسك لتوضيح مزيد من التفاصيل لقارئه شارحا كيف كانت تدور المعارك على طول مجرى نهر دجلة متطرقا إلى دور لورانس العرب وآخرين في محاولة رشوة الأتراك لفتح طريق لكتيبة من الجيش البريطاني التي كانت محاصرة، إذ اضطر الجنود لأكل الخيول للبقاء على قيد الحياة لكن وباء الكوليرا تفشى بينهم بشكل مدمر.
ويضيف فيسك أن الكتيبة عندما استسلمت في النهاية للأتراك كان قد توفي من بين عناصرها 4 آلاف جندي بريطاني وتم دفنهم في مقابر العمارة في منطقة مطلة على نهر دجلة فيما عرف بعد ذلك "بأسوأ هزيمة على الإطلاق للحلفاء خلال الحرب العالمية الأولى".